बच्चे खुश होते हैं
महान और सुरक्षित समझते हैं
जब लौटता है
युद्ध से उनका सिपाही पिता।
बारी-बारी गोद में बैठते हैं वे
पिता के ख़ुरदरे चेहरे को
नन्हीं उगलियों के पोरों से छूते हुए
वे लाड जताते हैं
अपनी-अपनी समझ के
करते हैं प्रश्न वे
दु:शमन कैसा होता है पापा
गोली भागती है कितनी तेज़
क्या दु:श्मन देश
में होते हैं खरबूजे
पिता उनको पसंद के
जवाब देता है
वे पूछते रहते हैं बराबर
क्या टैंक खुद ही
चढ़ जाता है टीलों पर
कैसे लाँघी जाती हैं
चौढी गहरी नदियां
दु:श्मन देश की तितलियां
कैसी होती हैं पापा
पिता उकताता नहीं प्रश्नों से
बाहों में समेट कर चूमता है उन्हें
बड़ा लड़का पूछता है
क्या खाने-सोने के लिए
फौजी लौट आते हैं बैरको में
क्या अंधेरा घिरते ही
कर दी जाती है लड़ाई बंद
तब पिता बख़ानता है
मुस्कुराते हुए
सिलसिलेवार
सबसे भयानक- सबसे त्रासद
सब से कठिन-सबसे यतीम
युद्ध में बिताए
अपने समय को।
लेकिन बच्चे हंसते नहीं
भय से उनकी आंखों के डेले
फैलने लगते हैं
बच्चों का यह रूप
पिता को कतई पसंद नहीं सबसे छोटे को बहलाते हुए
पिता गढ़ता है कथाएं।
जब मैं पहुंचा सीमा पार के गांव
सबसे पहले मिली
हलवाई की दुकान
वहां थी
गुलाबजामुनों की कड़ाही
बड़ा व मंझला चुटकी लेते हैं
आहा! छुटके के गुलाब जामुन
मंझला पूछता है
आपने कितने खाए पापा
अरे, खाता क्या
मुझे छुटके की याद आई
मैने पौचेज़ और पिट्ठु से
गोलियां फैंक दी
उन में भर दिए गुलाबजामुन
तभी दु:श्मन ने गोलीबारी शुरू कर दी
पिट्ठू और पौचेज छलनी हो गए
गोलियों को ठण्डा किया खांड की पात ने
गोलियों को रोका ग़ुलाबजामुनो ने
मैं तो बच गया
लेकिन ग़ुलाबजामुन मारे गए
बच्चे सम्वेत कहते हैं
कोई बात नहीं........ कोई बात नहीं...
तो छुटके के ग़ुलाबजामुनों ने बचाया आपको
पिता हां भरता है
छुटका पिता की मूंछो में
पिरोने लगा है
अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां।
Tuesday, December 16, 2008
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