दींनू कश्यप एक वरिष्ट साहित्यकार ही नहीं है बल्कि समाज के हर वर्ग में शुमार एक सक्रीय व्यक्ति भी है। सेना से सेवा निवृत्त हुए दीनू कश्यप हिमाचल प्रदेश सरकार में लोकसंपर्क अधिकारी के रूप में भी कार्य कर चुके हैं। इनकी सैनिक अनुभवों की कविताएं साहित्य जगत में ख़ासतौर से चर्चित रही है। इसके साथ नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने में दीनू कश्यप ख़ास रुचि रखते हैं। इन्हें न केवल एक वरिष्ठ कवि के रूप में बल्कि समाज की सभी रचनात्मक गतिविधियों में उत्साह से भाग लेने वाले सजग प्रहरी के रूप में देखा जा सकता है। यद्यपि दीनू कश्यप का अभी तक अपना कोई कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है लेकिन देश की बड़ी छोटी सभी पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएं अकसर प्रकाशित होती रहती है। दीनू कश्यप हिमाचल प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष भी हैं। इनकी अध्यक्षता और सक्रीय योगदान के फलस्वरूप हिमाचल और हिमाचल से बाहर हिमाचल प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ अनेक सार्थक आयोजन करता रहता है।दीनू कश्यप की कविताओं पर आपकी प्रतिक्रिया आमंत्रित है।(प्रकाश बादल)

Tuesday, September 29, 2009

बिन्दु पर आदमी

जहाँ से शुरू हुआ जंगल
वहाँ खड़ा था आदमी

जहाँ ख़त्म हुआ जंगल
वहाँ भी मौजूद पाया गया आदमी

कहाँ रहें अब
शेर, हिरण, बाघ, खरगोश
बाज, कबूतर का स्थान कहाँ

भय की सरसराहट
जो तैर रही है
वैज्ञानिकों के शीशे में
उसके हर बिंदु पर
खड़ा है आदमी

आदमी ही तय करेगा अब
आदमी का होना आदमी

होना
इस पृथ्वी पर
जीवन का ।

Tuesday, December 16, 2008

युद्ध से लौटा पिता

बच्चे खुश होते हैं


महान और सुरक्षित समझते हैं


जब लौटता है


युद्ध से उनका सिपाही पिता।


बारी-बारी गोद में बैठते हैं वे


पिता के ख़ुरदरे चेहरे को


नन्हीं उगलियों के पोरों से छूते हुए


वे लाड जताते हैं


अपनी-अपनी समझ के


करते हैं प्रश्न वे


दु:शमन कैसा होता है पापा


गोली भागती है कितनी तेज़


क्या दु:श्मन देश


में होते हैं खरबूजे


पिता उनको पसंद के


जवाब देता है



वे पूछते रहते हैं बराबर


क्या टैंक खुद ही


चढ़ जाता है टीलों पर


कैसे लाँघी जाती हैं


चौढी गहरी नदियां


दु:श्मन देश की तितलियां


कैसी होती हैं पापा


पिता उकताता नहीं प्रश्नों से


बाहों में समेट कर चूमता है उन्हें


बड़ा लड़का पूछता है


क्या खाने-सोने के लिए


फौजी लौट आते हैं बैरको में


क्या अंधेरा घिरते ही


कर दी जाती है लड़ाई बंद


तब पिता बख़ानता है


मुस्कुराते हुए


सिलसिलेवार


सबसे भयानक- सबसे त्रासद


सब से कठिन-सबसे यतीम


युद्ध में बिताए


अपने समय को।


लेकिन बच्चे हंसते नहीं


भय से उनकी आंखों के डेले


फैलने लगते हैं


बच्चों का यह रूप


पिता को कतई पसंद नहीं सबसे छोटे को बहलाते हुए


पिता गढ़ता है कथाएं।


जब मैं पहुंचा सीमा पार के गांव


सबसे पहले मिली


हलवाई की दुकान


वहां थी


गुलाबजामुनों की कड़ाही


बड़ा व मंझला चुटकी लेते हैं


आहा! छुटके के गुलाब जामुन


मंझला पूछता है


आपने कितने खाए पापा


अरे, खाता क्या


मुझे छुटके की याद आई


मैने पौचेज़ और पिट्ठु से


गोलियां फैंक दी


उन में भर दिए गुलाबजामुन


तभी दु:श्मन ने गोलीबारी शुरू कर दी


पिट्ठू और पौचेज छलनी हो गए


गोलियों को ठण्डा किया खांड की पात ने


गोलियों को रोका ग़ुलाबजामुनो ने



मैं तो बच गया


लेकिन ग़ुलाबजामुन मारे गए


बच्चे सम्वेत कहते हैं


कोई बात नहीं........ कोई बात नहीं...


तो छुटके के ग़ुलाबजामुनों ने बचाया आपको


पिता हां भरता है


छुटका पिता की मूंछो में


पिरोने लगा है


अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां।